Wednesday, September 2, 2009

Some poetic reflections

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिल-खिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
(Atal Bihari Vajpayee: Meri ekyawan kavitayein)

क्या फर्क पड़ता है ....

क्या फर्क पड़ता है ,राजा राम हो या रावण ,
जनता तो बॆचारी सीता है !
राजा राम हॊ तॊ वनवास जाऎगी,
राजा रावण हॊ तॊ हर् ली जाऎगी !!
क्या फर्क पड़ता है ,राजा कौरव‌ हो या पाण्डव‌,
जनता तो बॆचारी द्रौपदी है !
राजा पाण्डव हुऎ तॊ दाव् पर लगा दी जाऎगी,
राजा कौरव हुऎ तॊ भरी सभा में
नग्न् कर् दी जाऎगी !!
क्या फर्क पड़ता है ,राजा हिन्दू हॊ या मुस्लिम् ,
जनता तॊ बॆचारी लाश् है ,
राजा हिन्दू हुऎ तॊ जला दी जाऎगी,
राजा मुस्लिम् हुऎ तॊ दफना दी जाऎगी !!

(told by some childhood friend)